Last modified on 21 जुलाई 2016, at 23:58

कांधरा / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:58, 21 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=शब्द प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

232.

अब मोहि जानि परो दिन नीको।
नयनन देखु दरस सतगुरु को, श्रवन सुनो संदेशो पीको।
तुलसी माल विराजै उपर, भाल धरो हरि-मंदिर टीको।
साधु संगति पंगति मिलि बैठे, छूटि गवो बहुबंधन न जीको।
भेटे भेद भरम भहरानो, वेद लोक मन भैगो फीको।
उपजत उर आनंद अग्नि ज्यों, पुनि पुनि पूट परै जनु घीको॥
नख सिख अंग विषय-विष उतरो, रोम रोम रस भरो अमीको।
धरनी तासु चरन चित लाओ, जो साहेब असमान जमींको॥1॥