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रे पंछी! / रामचरण हयारण 'मित्र'

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रे पंछी! तिसना की डाँगन में भटकत मुकते दिन बीते।
फल की इच्छा सैं बिरछन की
मुलकन देखी डार-डरइयाँ,
करमन सैं जो मिले, उनें दए-
छोड़, तकीं फिर ताल-तलइयाँ।

सबरइँ धाली चौंच, तोउ रए पेट अरे रीते के रीते।
अपने जात-पाँत के पंछिन-
खौं कर पीछें आँगें दौरे,
कितनन खौं घायल कर पंजन,
बिदो-बिदो समुदा में बोरे।

तइ पै तेरी मरी न मंसा, इतने करम करे तैं लीते।
संसारी के वन में आए,
भारी-भारी पंखनबारे,
उड़त-उड़त पंखा सब झर गए
पार न पाऔ तब मन हारे।

तइ पै तैं कउतइ, जा जग में हम सौं निठुआँ अनचीते।
जासैं जो सैजइ मिल जाबै,
बइमें तिरपत हो कै रइए।
‘मित्र’-सत्रु कौ भेद भुला कै,
परमेसुर को कीरत गइए।
जिनकौ जुरौ सत्त सें नातौ बेई रन जीवन कौ जीते।