भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रसराज / हरगोविन्द सिंह

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:51, 28 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरगोविन्द सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनकै पराई पीर गल जाय नैनूँ-घाईं
एइ आय आदमी के हिरदे की सरबस,
भुलै निजी राग-रंग, बना देत बिस्वरूप
मूल सुर तंत्रिका सें जोर देत बरबस;
छीन करै छुद्र भाब, दिब्ब छबि प्रगटाबै
बस करैं बज्रधारी बिना तीर-तरकस,
और सब रस आयँ दरबारी सहना-से
छत्रपति स्वामी एक साँचौ-सौ करुन रस।