भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हे मन मूड़ समझया मत रे / संत जूड़ीराम
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:39, 29 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संत जूड़ीराम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हे मन मूड़ समझया मत रे।
कर मन परख हरख हर हेरी तज विभिचार पीव गत रत रे।
सरकी जात सरो नहिं कारज भजन बिना नहिं पावत गत रे।
माया मोह जाल भ्रम भारी विन विवेक नहिं आवत सत रे।
जूड़ीराम नाम बिन चीन्हें कोटि जतन कर मिले गुपत रे।