भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टूटते रिश्ते / पवन चौहान

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:42, 9 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पवन चौहान |अनुवादक= |संग्रह=किनार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने क्यों बढ़ती जाती हैं दूरियां
पास रहकर भी
रिश्तों की डोर उलझ जाती है
अपने ही ताने-बाने में
दिशाविहीन कदमों की रुपरेखा समझना
मुश्किल हो जाता है
और वक्त तलाश लेता है मौका
पीछे धकेलने का
वक्त बन जाता है आदमी
पर आदमी कभी वक्त नहीं बन पाता
कदमों की आहट नहीं दे पाती
पहले-सा सुकून
ऑंखें प्यासी ही रह जाती हैं
नहीं मिल पाते दिल कभी
न ही मिलता है
प्यार भरी हथेलियों का मुलायम स्पर्श
स्ंवेदनशील हृदयों का पत्थर होना
श्रापित कर देता है एक युग।