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हल्दीघाटी / पंचम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय

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पंचम सर्ग: सगवक्ष

भरा रहता अकबर का
सुरभित जय–माला से।
सारा भारत भभक रहा था
क्रोधानल–ज्वाला से॥1॥

रत्न–जटित मणि–सिंहासन था
मण्डित रणधीरों से।
उसका पद जगमगा रहा था
राजमुकुट–हीरों से॥2॥

जग के वैभव खेल रहे थे
मुगल–राज–थाती पर।
फहर रहा था अकबर का
झण्डा नभ की छाती पर॥3॥

यह प्रताप यह विभव मिला¸
पर एक मिला था वादी।
रह रह काँटों सी चुभती थी
राणा की आजादी॥4॥

कहा एक वासर अकबर ने –
"मान¸ उठा लो भाला¸
शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸
मुझे विजय की माला॥5॥

हय–गज–दल पैदल रथ ले लो
मुगल–प्रताप बढ़ा दो।
राणा से मिलकर उसको भी
अपना पाठ पढ़ा दो॥6॥

ऐसा कोई यत्न करो
बन्धन में कस लेने को।
वही एक विषधर बैठा है
मुझको डस लेने को"॥7॥

मानसिंह ने कहा –"आपका
हुकुम सदा सिर पर है।
बिना सफलता के न मान यह
आ सकता फिरकर है।"॥8॥

यह कहकर उठ गया गर्व से
झुककर मान जताया।
सेना ले कोलाहल करता
शोलापुर चढ़ आया॥9॥

युद्ध ठानकर मानसिंह ने
जीत लिया शोलापुर।
भरा विजय के अहँकार से
उस अभिमानी का उर॥10॥

किसे मौत दूँ¸ किसे जिला दूँ¸
किसका राज हिला दूँ?
लगा सोचने किसे मींजकर
रज में आज मिला दूँ॥11॥

किसे हँसा दूँ बिजली–सा मैं¸
घन–सा किसै रूला दूँ?
कौन विरोधी है मेरा
फांसी पर जिसे झुला दूँ॥12॥

बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर
किसे झेलना दुख है?
रण करने की इच्छा से
जो आ सकता सम्मुख है॥13॥

कहते ही यह ठिठक गया¸
फिर धीमे स्वर से बोला।
शोलापुर के विजय–गर्व पर
गिरा अचानक गोला॥14॥

अहो अभी तो वीर–भूमि
मेवाड़–केसरी खूनी।
गरज रहा है निर्भय मुझसे
लेकर ताकत दूनी॥15॥

स्वतन्त्रता का वीर पुजारी
संगर–मतवाला है।
शत–शत असि के सम्मुख
उसका महाकाल भाला है॥16॥

धन्य–धन्य है राजपूत वह
उसका सिर न झुका है।
अब तक कोई अगर रूका तो
केवल वही रूका है॥17॥

निज प्रताप–बल से प्रताप ने
अपनी ज्योति जगा दी।
हमने तो जो बुझ न सके¸
कुछ ऐसी आग लगा दी॥18॥

अहो जाति को तिलांजली दे
हुए भार हम भू के।
कहते ही यह ढुलक गये
दो–चार बूँद आँसू के॥19॥

किन्तु देर तक टिक न सका
अभिमान जाति का उर में।
क्या विहँसेगा विटप¸ लगा है
यदि कलंक अंकुर में॥20॥

एक घड़ी तक मौन पुन:
कह उठा मान गरवीला–
देख काल भी डर सकता
मेरी भीषण रण–लीला॥21॥

वसुधा का कोना धरकर
चाहूँ तो विश्व हिला दूँ।
गगन–मही का क्षितिज पकड़
चाहूँ तो अभी मिला दूँ॥22॥

राणा की क्या शक्ति उसे भी
रण की कला सिखा दूँ।
मृत्यु लड़े तो उसको भी
अपने दो हाथ दिखा दूँ॥23॥

पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा
चलकर निश्चय कर लूँ।
मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो
संगर से जी भर लूँ॥24॥

युद्ध महाराणा प्रताप से
मेरा मचा रहेगा।
मेरे जीते–जी कलंक से
क्या वह बचा रहेगा?॥25॥

मानी मान चला¸ सोचा
परिणाम न कुछ जाने का।
पास महाराणा के भेजा
समाचार आने का॥26॥

मानसिंह के आने का
सन्देश उदयपुर आया।
राणा ने भी अमरसिंह को
अपने पास बुलाया॥27॥

कहा –"पुत्र! मिलने आता है
मानसिंह अभिमानी।
छल है¸ तो भी मान करो
लेकर लोटा भर पानी॥28॥

किसी बात की कमी न हो
रह जाये आन हमारी।
पुत्र! मान के स्वागत की
तुम ऐसी करो तैयारी"॥29॥

मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से
सजे गये दरवाजे।
मान मान के लिये मधुर
बाजे मधुर–रव से बाजे॥30॥

जगह जगह पर सजे गये
फाटक सुन्दर सोने के।
बन्दनवारों से हँसते थे
घर कोने कोने के॥31॥

जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸
व्याकुल दरबारी–जन¸
नव गुलाब–वासित पानी से
किया गया पथ–सिंचन॥32॥

शीतल–जल–पूरित कंचन के
कलसे थे द्वारों पर।
चम–चम पानी चमक रहा था
तीखी तलवारों पर॥33॥

उदयसिंधु के नीचे भी
बाहर की शोभा छाई।
हृदय खोलकर उसने भी
अपनी श्रद्धा दिखलाई॥34॥

किया अमर ने धूमधाम से
मानसिंह का स्वागत।
मधुर–मधुर सुरभित गजरों के
बोझे से वह था नत॥35॥

कहा देखकर अमरसिंह का
विकल प्रेम अपने मन में।
होगा यह सम्मान मुझे
विश्वास न था सपने में॥36॥

शत–शत तुमको धन्यवाद है¸
सुखी रहो जीवन भर।
झरें शीश पर सुमन–सुयश के
अम्बर–तल से झर–झर॥37॥

धन्यवाद स्वीकार किया¸
कर जोड़ पुन: वह बोला।
भावी भीषण रण का
दरवाजा धीरे से खोला –॥38॥

समय हो गया भूख लगी है¸
चलकर भोजन कर लें।
थके हुए हैं ये मृदु पद
जल से इनको तर कर लें।"॥39॥

सुनकर विनय उठा केवल रख
पट रेशम का तन पर।
धोकर पद भोजन करने को
बैठ गया आसन पर॥40॥

देखे मधु पदार्थ पन्ने की
मृदु प्याली प्याली में।
चावल के सामान मनोहर
सोने की थाली में॥41॥

घी से सनी सजी रोटी थी¸
रत्नों के बरतन में।
शाक खीर नमकीन मधुर¸
चटनी चमचम कंचन में॥42॥

मोती झालर से रक्षित¸
रसदार लाल थाली में।
एक ओर मीठे फल थे¸
मणि–तारों की डाली में॥43॥

तरह–तरह के खाद्य–कलित¸
चांदी के नये कटोरे
भरे खराये घी से देखे¸
नीलम के नव खोरे॥44॥

पर न वहां भी राणा था
बस ताड़ गया वह मानी।
रहा गया जब उसे न तब वह
बोल उठा अभिमानी॥45॥

"अमरसिंह¸ भोजन का तो
सामान सभी सम्मुख है।
पर प्रताप का पता नहीं है
एक यही अब दुख है॥46॥

मान करो पर मानसिंह का
मान अधूरा होगा।
बिना महाराणा के यह
आतिथ्य न पूरा होगा॥47॥

जब तक भोजन वह न करेंगे
एक साथ आसन पर;
तब तक कभी न हो सकता है
मानसिंह का आदर॥48॥

अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम
जाओ मिलो पिता से;
मेरा यह सन्देश कहो
मेवाड़–गगन–सविता से॥49॥

बिना आपके वह न ठहर पर
ठहर सकेंगे क्षण भी।
छू सकते हैं नहीं हाथ से¸
चावल का लघु कण भी।"॥50॥

अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा
इसी भयानक तिथि से।
गया लौटकर अमरसिंह फिर
आया कहा अतिथि से॥51॥

"मैं सेवा के लिए आपकी
तन–मन–धन से आकुल।
प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं
सिर की पीड़ा से व्याकुल।"॥51॥

पथ प्रताप का देख रहा था¸
प्रेम न था रोटी में।
सुनते ही वह काँप गया¸
लग गई आग चोटी में॥53॥

घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸
लगी दहकने त्रिकुटी।
अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸
मानसिंह की भृकुटी॥54॥

चावल–कण दो–एक बांधकर
गरज उठा बादल सा।
मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸
गया अचानक जल सा॥55॥

"कुशल नहीं¸ राणा प्रताप का
मस्तक की पीड़ा से।
थहर उठेगा अब भूतल
रण–चण्डी की क्रीड़ा से॥56॥

जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के
गौरव की रक्षा की।
खेद यही है वही मान का
कुछ रख सका न बाकी॥57॥

बिना हेतु के होगा ही वह
जो कुछ बदा रहेगा।
किन्तु महाराणा प्रताप अब
रोता सदा रहेगा॥58॥

मान रहेगा तभी मान का
हाला घोल उठे जब।
डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर
भय से डोल उठे जब।"॥59॥

चकाचौंध सी लगी मान को
राणा की मुख–भा से।
अहँकार की बातें सुन
जब निकला सिंह गुफा से॥60॥

दक्षिण–पद–कर आगे कर
तर्जनी उठाकर बोला।
गिरने लगा मान–छाती पर
गरज–गरज कर गोला॥61॥

वज`–नाद सा तड़प उठा
हलचल थी मरदानों में।
पहुंच गया राणा का वह रव
अकबर के कानों में॥62॥

"अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत
खाना हो तो खाओ।
या बधना का ही शीतल–जल
पीना हो तो जाओ॥63॥

जो रण को ललकार रहे हो
तो आकर लड़ लेना।
चढ़ आना यदि चाह रहे
चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना॥64॥

कहाँ रहे जब स्वतन्त्रता का
मेरा बिगुल बजा था?
जाति–धर्म के मुझ रक्षक को
तुमने क्या समझा था॥65॥

अभी कहूँ क्या¸ प्रश्नों का
रण में क्या उत्तर दूँगा।
महामृत्यु के साथ–साथ
जब इधर–उधर लहरूंगा॥66॥

भभक उठेगी जब प्रताप के
प्रखर तेज की आगी।
तब क्या हूँ बतला दूँगा
ऐ अम्बर कुल के त्यागी।"॥67॥

अभी मान से राणा से था
वाद–विवाद लगा ही¸
तब तक आगे बढ़कर बोला
कोई वीर–सिपाही॥68॥

"करो न बकझक लड़कर ही
अब साहस दिखलाना तुम;
भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को
भी लेते आना तुम।"॥69॥

महा महा अपमान देखकर
बढ़ी क्रोध की ज्वाला।
मान कड़ककर बोल उठा फिर
पहन अiर्च की माला–॥70॥

"मानसिंह की आज अवज्ञा
कर लो और करा लो;
बिना विजय के ऐ प्रताप
तुम¸ विजय–केतु फहरा लो॥71॥

पर इसका मैं बदल लूँगा¸
अभी चन्द दिवसों में;
झुक जाओगे भर दूँगा जब
जलती ज्वाल नसों में॥72॥

ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो
अब मेरी ललकारों से;
अकबर के विकराल क्रोध से¸
तीखी तलवारों से॥73॥

ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने
के लिए रणों में;
हाथों में हथकड़ी पहनकर
बेड़ी निज चरणों में॥74॥

मानसिंह–दल बन जायेगा
जब भीषण रण–पागल।
ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे
झुक जायेगा सेना–बल॥75॥

ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो
सांपिन सी करवालों से;
ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो
तीखे–तीखे भालों से॥76॥

"गिनो मृत्यु के दिन्" कहकर
घोड़े को सरपट छोड़ा¸
पहुंच गया दिल्ली उड़ता वह
वायु–वेग से घोड़ा॥77॥

इधर महाराणा प्रताप ने
सारा घर खुदवाया।
धर्म–भीरू ने बार–बार
गंगा–जल से धुलवाया॥78॥

उतर गया पानी¸ प्यासा था¸
तो भी पिया न पानी।
उदय–सिन्धु था निकट डर गया
अपना दिया न पानी॥79॥

राणा द्वारा मानसिंह का
यह जो मान–हरण था।
हल्दीघाटी के होने का
यही मुख्य कारण था॥80॥

लगी सुलगने आग समर की
भीषण आग लगेगी।
प्यासी है अब वीर–रक्त से
माँ की प्यास बुझेगी॥81॥

स्वतन्त्रता का कवच पहन
विश्वास जमाकर भाला में।
कूद पड़ा राणा प्रताप उस
समर–वह्नि की ज्वाला में॥82॥