पंचदश सर्ग: सगपावस
बीता पर्वत पर 
नीलम घासें लहराई। 
कासों की श्वेत ध्वजाएँ 
किसने आकर फहराई?॥1॥ 
नव पारिजात–कलिका का 
मारूत आलिंगन करता 
कम्पित–तन मुसकाती है 
वह सुरभि–प्यार ले बहता॥2॥ 
कर स्नान नियति–रमणी ने¸ 
नव हरित वसन है पहना। 
किससे मिलने को तन में 
झिलमिल तारों का गहना॥3॥ 
पर्वत पर¸ अवनीतल पर¸ 
तरू–तरू के नीलम दल पर¸ 
यह किसका बिछा रजत–तट 
सागर के वक्ष:स्थल पर॥4॥ 
वह किसका हृदय निकलकर 
नीरव नभ पर मुसकाता? 
वह कौन सुधा वसुधा पर 
रिमझिम–रिमझिम बरसाता॥5॥ 
तारक मोती का गजरा 
है कौन उसे पहनाता? 
नभ के सुकुमार हृदय पर 
वह किसको कौन रिझाता ॥6॥ 
पूजा के लिए किसी की 
क्या नभ–सर कमल खिलाता? 
गुदगुदा सती रजनी को 
वह कौन छली इतराता॥7॥ 
वह झूम–झूमकर किसको 
नव नीरव–गान सुनाता? 
क्या शशि तारक मोती से 
नभ नीलम–थाल सजाता॥8॥ 
जब से शशि को पहरे पर 
दिनकर सो गया जगाकर¸ 
कविता–सी कौन छिपी है 
यह ओढ़ रूपहली चादर॥9॥ 
क्या चांदी की डोरी से 
वह नाप रहा है दूरी? 
या शेष जगह भू–नभ की 
करता ज्योत्स्ना से पूरी॥10॥ 
इस उजियाली में जिसमें 
हँसता है कलित–कलाधर। 
है कौन खोजता किसको 
जुगनू के दीप जलाकर॥11॥ 
लहरों से मृदु अधरों का 
विधु झुक–झुक करता चुम्बन। 
धुल कोई के प्राणों में 
वह बना रहा जग निधुवन॥12॥ 
घूंघट–पट खोल शशी से 
हँसती है कुमुद–किशोरी। 
छवि देख देख बलि जाती 
बेसुध अनिमेष चकोरी॥13॥ 
इन दूबों के टुनगों पर 
किसने मोती बिखराये? 
या तारे नील–गगन से 
स्वच्छन्द विचरने आये॥14॥ 
या बँधी हुई हैं अरि की 
जिसके कर में हथकड़ियां¸ 
उस पराधीन जननी की 
बिखरी आँसू की लड़ियां॥15॥ 
इस स्मृति से ही राणा के 
उर की कलियां मुरझाई। 
मेवाड़–भूमि को देखा¸ 
उसकी आँखें भर आई॥16॥ 
अब समझा साधु सुधाकर 
कर से सहला–सहलाकर। 
दुर्दिन में मिटा रहा है 
उर–ताप सुधा बरसाकर॥17॥ 
जननी–रक्षा–हित जितने 
मेरे रणधीर मरे हैं¸ 
वे ही विस्तृत अम्बर पर 
तारों के मिस बिखरे हैं॥18॥ 
मानव–गौरव–हित मैंने 
उन्मत्त लड़ाई छेड़ी। 
अब पड़ी हुई है माँ के 
पैरों में अरि की बेड़ी॥19॥ 
पर हाँ¸ जब तक हाथों में 
मेरी तलवर बनी है¸ 
सीने में घुस जाने को 
भाले की तीव्र अनी है॥20॥ 
जब तक नस में शोणित है 
श्वासों का ताना–बाना¸ 
तब तक अरि–दीप बुझाना 
है बन–बनकर परवाना॥21॥ 
घासों की रूखी रोटी¸ 
जब तक सोत का पानी। 
तब तक जननी–हित होगी 
कुबार्नी पर कुबार्नी॥22॥ 
राणा ने विधु तारों को 
अपना प्रण–गान सुनाया। 
उसके उस गान वचन को 
गिरि–कण–कण ने दुहराया॥23॥ 
इतने में अचल–गुहा से 
शिशु–क्रन्दन की ध्वनि आई? 
कन्या के क्रन्दन में थी 
करूणा की व्यथा समाई॥24॥ 
उसमें कारागृह से थी 
जननी की अचिर रिहाई। 
या उसमें थी राणा से 
माँ की चिर छिपी जुदाई॥25॥ 
भालों से¸ तलवारों से¸ 
तीरों की बौछारों से¸ 
जिसका न हृदय चंचल था 
वैरी–दल ललकारा से॥26॥ 
दो दिन पर मिलती रोटी 
वह भी तृण की घासों की¸ 
कंकड़–पत्थर की शय्या¸ 
परवाह न आवासों की॥27॥ 
लाशों पर लाशें देखीं¸ 
घायल कराहते देखे। 
अपनी आँखों से अरि को 
निज दुर्ग ढाहते देखे॥28॥ 
तो भी उस वीर–व्रती का 
था अचल हिमालय–सा मन। 
पर हिम–सा पिघल गया वह 
सुनकर कन्या का क्रन्दन॥29॥ 
आँसू की पावन गंगा 
आँखों से झर–झर निकली। 
नयनों के पथ से पीड़ा 
सरिता–सी बहकर निकली॥30॥ 
भूखे–प्यासे–कुम्हालाये 
शिशु को गोदी में लेकर। 
पूछा¸ "तुम क्यों रोती हो 
करूणा को करूणा देकर्"॥31॥ 
अपनी तुतली भाषा में 
वह सिसक–सिसककर बोली¸ 
जलती थी भूख तृषा की 
उसके अन्तर में होली॥32॥ 
'हा छही न जाती मुझछे 
अब आज भूख की ज्वाला। 
कल छे ही प्याछ लगी है 
हो लहा हिदय मतवाला॥33॥ 
माँ ने घाछों की लोती 
मुझको दी थी खाने को¸ 
छोते का पानी देकल 
वह बोली भग जाने को॥34॥ 
अम्मा छे दूल यहीं पल 
छूकी लोती खाती थी। 
जो पहले छुना चुकी हूँ¸ 
वह देछ–गीत गाती थी॥35॥ 
छच कहती केवल मैंने 
एकाध कवल खाया था। 
तब तक बिलाव ले भागा 
जो इछी लिए आया था॥36॥ 
छुनती हूँ तू लाजा है 
मैं प्याली छौनी तेली। 
क्या दया न तुझको आती 
यह दछा देखकल मेली॥37॥ 
लोती थी तो देता था¸ 
खाने को मुझे मिठाई। 
अब खाने को लोती तो 
आती क्यों तुझे लुलाई॥38॥ 
वह कौन छत्रु है जिछने 
छेना का नाछ किया है? 
तुझको¸ माँ को¸ हम छभको¸ 
जिछने बनबाछ दिया है॥39॥ 
यक छोती छी पैनी छी 
तलवाल मुझे भी दे दे। 
मैं उछको माल भगाऊँ 
छन मुझको लन कलने दे॥40॥ 
कन्या की बातें सुनकर 
रो पड़ी अचानक रानी। 
राणा की आँखों से भी 
अविरल बहता था पानी॥41॥ 
उस निर्जन में बच्चों ने 
माँ–माँ कह–कहकर रोया। 
लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर 
धीरज ने धीरज खोया॥42॥ 
वह स्वतन्त्रता कैसी है 
वह कैसी है आजादी। 
जिसके पद पर बच्चों ने 
अपनी मुक्ता बिखरा दी॥43॥ 
सहने की सीमा होती 
सह सका न पीड़ा अन्तर। 
हा¸ सiन्ध–पत्र लिखने को 
वह बैठ गया आसन पर॥44॥ 
कह 'सावधान्' रानी ने 
राणा का थाम लिया कर। 
बोली अधीर पति से वह 
कागद मसिपात्र छिपाकर॥45॥ 
"तू भारत का गौरव है¸ 
तू जननी–सेवा–रत है। 
सच कोई मुझसे पूछे 
तो तू ही तू भारत है॥46॥ 
तू प्राण सनातन का है 
मानवता का जीवन है। 
तू सतियों का अंचल है 
तू पावनता का धन है॥47॥ 
यदि तू ही कायर बनकर 
वैरी सiन्ध करेगा। 
तो कौन भला भारत का 
बोझा माथे पर लेगा॥48॥ 
लुट गये लाल गोदी के 
तेरे अनुगामी होकर। 
कितनी विधवाएं रोतीं 
अपने प्रियतम को खोकर॥49॥ 
आज़ादी का लालच दे 
झाला का प्रान लिया है। 
चेतक–सा वाजि गंवाकर 
पूरा अरमान किया है॥50॥ 
तू सन्धि–पत्र लिखने का 
कह कितना है अधिकारी? 
जब बन्दी माँ के दृग से 
अब तक आँसू है जारी॥51॥ 
थक गया समर से तो तब¸ 
रक्षा का भार मुझे दे। 
मैं चण्डी–सी बन जाऊं 
अपनी तलवार मुझे दे।"॥52॥ 
मधुमय कटु बातें सुनकर 
देखा ऊपर अकुलाकर¸ 
कायरता पर हँसता था 
तारों के साथ निशाकर॥53॥ 
झाला सम्मुख मुसकाता 
चेतक धिक्कार रहा है। 
असि चाह रही कन्या भी 
तू आँसू ढार रहा है॥54॥ 
मर मिटे वीर जितने थे¸ 
वे एक–एक कर आते। 
रानी की जय–जय करते¸ 
उससे हैं आँख चुराते॥55॥ 
हो उठा विकल उर–नभ का 
हट गया मोह–धन काला। 
देखा वह ही रानी है 
वह ही अपनी तृण–शाला॥56॥ 
बोला वह अपने कर में 
रमणी कर थाम "क्षमा कर¸ 
हो गया निहाल जगत में¸ 
मैं तुम सी रानी पाकर।"॥57॥ 
इतने में वैरी–सेना ने 
राणा को घेर लिया आकर। 
पर्वत पर हाहाकार मचा 
तलवारें झनकी बल खाकर॥58॥ 
तब तक आये रणधीर भील 
अपने कर में हथियार लिये। 
पा उनकी मदद छिपा राणा 
अपना भूखा परिवार लिये॥59॥