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नख सिख - 5 / प्रेमघन

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खम्भ खरे कदली के जुरे जुग,
जाहि चितै चित जात लुभाई।
हेम पतौअन सों लदि कै,
लतिका इक फैलि रही छबि छाई॥
देखियै तो घन प्रेम नहीं पैं,
खिले जुग कंज प्रसून सुहाई।
हैं फल बिम्ब मैं दाड़िम बीज,
दई यह कैसी अपूरबताई॥