भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नख सिख - 6 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:50, 18 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भरो जल सुन्दर रूप अनूप,
सरीरहि है सर स्वच्छ नवीन।
मृणाल भुजा त्रिबली है तरंग,
तथा चकवाक पयोधर पीन॥
सजे घन प्रेम भरी रमनी सिर,
वार सवार सिवार अहीन।
अहो यह नाचत हैं मुख पैं दृग,
ज्यों इक वारिज पै जुग मीन॥