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नाविक / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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नाव चली गयी है क्षितिज पर-यही सोचकर
निद्रासक्त होने जाकर भी वेदना से जाग उठता है परास्त नाविक,
सूर्य और भी परम पराक्रम हो उठा है-सैकत के पीछे
बन्दरगाह का कोलाहल, सीधे खड़े ताड़ के पेड़ फिर उसके पार सब कुछ स्वाभाविक।

स्वर्गीय पक्षी के अण्डे-सा सूरज, सुनहले केश वाली नन की आँख में
गौ झुंड चरते खेत दर खेत, आम किसानों के खेलने की चीज़
इसके बाद अंधेरे कमरों में थके हुए नरमुण्डों की भीड़
बल्लम की तरह तेज़ चमक के भीतर निराश्रय पड़े रहते हैं।

आश्चर्य, सोने की तरफ़ तकता रहता-निरन्तर द्रुत उन्मीलन से
जीवाणु उड़े जाते हैं-देखते रहते हैं-किसी एक विस्मय के देश में-
हे नाविक, हे नाविक तुम्हारी यात्रा सूर्य को कहाँ तक लक्ष्य करती है?
बेबीलोन, निनेभ, मिस्र, चीन के मन दरपन में फँसकर।

एक और समुद्र में चले जाते हो-दोपहर
वैशाली से वायु-गेत्सिमिन-सिकन्दरिया
मोम की लौ है पीछे पड़े हुए कोमल संकेतों की तरह
वे भी सैकत। फिर भी तृप्ति नहीं। और भी दूर हृदय में चक्रवात की चाह

रह गया है प्रयोजन, जितने दिन पथराये पँख खोले ततैयों की भीड़
उड़ जाते हैं लाल धूप में, हवाई जहाज़ से तेज गति से रसीले सारस
भ्रम का बुना हुआ नीला पर्दा हटा दे तो स्वयं मानव हृदय का
उज्ज्वल घड़ी है-नाविक-बहता हुआ अनन्त पानी।