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घास / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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कच्चे नींबू के पत्तों-सी नरम मूँगिया रोशनी से
भर गयी है, पृथ्वी की भोर बेला,

कच्चे बातावी(अपनी सुगंध के लिये प्रसिद्ध विशेष प्रकार का नींबू) नींबू-सी हरी घास उसी की चारों ओर गन्ध
हिरणों का झुंड उसे टूंग रहा है।

मेरी भी इच्छा है घास की इस गन्ध को
हरे मद की तरह भर-भर गिलास पान करूँ,

इस घास की देह को छानूँ
इस घास की आँख में अपनी आँखें मलूँ
घास की आँखें मुझे पालें-पोसें,

मेरी इच्छा होती है-
घास के भीतर-
किसी निविड़ घास माता की
देह के सुस्वाद अन्धकार से
घास के रूप में जन्म लूँ।