Last modified on 21 अगस्त 2016, at 10:31

सुचेतना / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:31, 21 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जीवनानंद दास |अनुवादक=समीर वरण नं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सुचेतना, तुम बहुत दूर शाम के नक्षत्र के क़रीब
एक द्वीप हो,
जहाँ दालचीनी बाग़ के एक हिस्से में
केवल निर्जनता बसी हुई है।
इस संसार में युद्ध खून और जीत
सत्य है, पर केवल यही सत्य नहीं
एक न एक दिन कलकत्ता में भी होगा युद्ध
पर मेरा मन तुम्हारे लिए ही रहेगा।
आज तक बहुत कड़ी धूप में फिरता रहा प्राण
आदमी को आदमी की तरह प्यार करने जाकर
पाया है मैंने शायद मेरे ही हाथ मर गये सारे जन
भाई बन्धु परिजन।
पृथ्वी के भीतर-अन्दर तक बीमार है
फिर भी आदमी पृथ्वी का क़र्जदार है
शवों की फ़सल लादे-लादे
जहाज़ आता है हमारे शहर के बन्दरगाह पर
धूप में शव से फैलता है सुनहला विस्मय
जिसने हमारे पिता बुद्ध कन्फ़्यूशियस की तरह
हमें भी मूक किये रखा है

लोग, और खून दो की गुहार लगाये हैं।
सुचेतना, तुम्ही रोशनी हो-
मनीषीगण इसे जानने में अभी शताब्दी लगायेंगे।

ये हवा जितनी परम सूर्य किरण से उज्ज्वल है
हमारे जैसे दुःखी, दुःखविहीन नाविक के हाथों
मानव को भी उतना ही सुन्दर गढ़ना है
आज नहीं तो अन्तिम प्रहर आने तक।
मुझ में मिट्टी और पृथ्वी को पाने की बड़ी साध थी
जनमूँ या न जनमूँ की दुविधा में था
कि फिर जन्म लेकर जो लाभ है वह सब समझा
कि ठंडी देह छूकर उजली भोर में पाया
जो नहीं होना था-वही होता है आदमी का और वही होगा-
शाश्वत रात की छाती में सब वही
अनन्त सूर्योदय।