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तुम / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
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नक्षत्रों की गति से चारों ओर उजाला है आकाश में,
बहती हवा में नीली-नीली दीख रही प्रान्तर की घास,
सो रहे हैं केंचुआ और झींप भी नींद में,
आम, नीम, कटहल के विस्तार में पड़ी हुई हो केवल तुम
मिट्टी की बहुत तह में खो गई हो या फिर दूर आकाश पार,
अँधेरे में क्या सोचती हो तुम?
यह लो... जामुनों के जंगल में अकेली कबूतरी बोली
जैसे तुम्हारे अभाव में यह तुम्हीं हो।
मेरे इतने क़रीब, आश्विन के विशाल आकुल-आकाश में
और किससे इतने सहज, गहरे और अनायास मिलूँगा
कहते ही-
प्रकृतस्थ प्रकृति की तरह प्रेम-अप्रेम से दूर
निखिल अंधकार के लिए उड़ गयी चिड़िया।