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मुझे तुम / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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मुझे तुमने दिखाया था-एक दिन
विस्तृत मैदान, देवदार और पाम के ख़ामोश शिखर
दूर-दूर तक फैले
दोपहरी की निर्जन गंभीर हवा
चील के डैने के भीतर खो जाते हैं निस्पन्द
और फिर ज्वार की तरह लौटकर एक-एक झरोखे
देर तक बतियाते थे।

ऐसा लगता है मानो पृथ्वी जैसे कोई मायावती नदी के पार का देश हो।
फिर बहुत दूर दिखाई दी-
दोपहरी रूपसी हवा में घास पर कोई धान फटकारती
गीत गाती हुई।
लगता है पल-पल की दोपहरी में कोई भरापूरा जीवन तैर आया है।
शाम के भीगे-भीगे मुहूर्त में
नदी में सांभर, नीलगाय और हिरणों की छायाओं का आना-जाना
मुझे तुमने दिखाई थी-
एक सफ़ेद चीतल हिरणी की छाया
नदी के पानी में पूरी शाम से
मावे से बनी धूसर खीर की मूर्ति की तरह-
स्थिर।

कभी-कभार दूर बहुत दूर श्मशान घाट से चन्दन चिता की चिराँयध
आग में घी की गंध
शाम असंभव उदास
झाउ, हरीशाल बुझते सूर्य में
अमरूद, आँवला, देवदार और शाल
हवा के सीने पर स्पृहा उत्साह जीवन का फेन
रात, नक्षत्र और नक्षत्रों के निस्तब्ध अतीत में
सफे़द काले छींट के कबूतर का चाँदनी में उड़ना-बैठना छटपटाना
ये सब तुमने मुझे दिखाया था-
उजाले की तरह,
प्रेेम की तरह,
अकेलेपन की तरह,
मृत्यु बाद के बेहद घने अन्धकार की तरह।