भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सहज / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:54, 21 अगस्त 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जीवनानंद दास |अनुवादक=समीर वरण नं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे ये गीत
तुम आकर कभी सुनोगी नहीं-
आज रात मेरी पुकार
बह जायेगी हवा में,
तब भी मेरा मन गाता है।
बुलाने की भाषा नहीं भूलता
प्राण में प्यार लिए
दुनिया के आगे
तारों के कान में
गाता हूँ गान।
तुम आकर कभी सुनोगी नहीं, मैं जानता हूँ-
आज रात मेरी पुकार
बह जायेगी हवा में-
फिर भी मन गाता है।

तुम हो जल और समुद्र की लहर की तरह
तुम्हारी देह का वेग-
तुम्हारा सहज मन
तैरता चला आता है
सागर के आगोश में
कौन लहर लग गयी थी उसकी छाती में
अंधेरे में-
कौन-सी लहर उसे लेने आयी थी
अंधेरे में-
वह नहीं जानता,
सागर की रात का जल
सागर की लहर हो
एक तुम भी।
तुम्हें कौन प्यार करता है,
तुम्हें क्या किसी ने मन में बसाया है।
पानी के वेग के साथ तुम चली जाती हो-
उच्छवास लिए गंदला-जल बुलाता रह जाता है।

तुम सिर्फ़ एक दिन, एक रात की हो,
आदमी और औरत की भीड़
तुम्हें बुलाते हैं दूर-कितनी दूर-
किस सागर के किनारे-वन में-मैदान में-
या कि आकाश जुड़े
उल्का के प्रकाश में तैरती हो
या कि जिस आकाश में
हँसुए की तरह टेढ़ा चाँद
निकल कर छुप जाता है-

वहीं है तुम्हारे प्राण की इच्छा,
उसी के पास
जहाँ पेड़ों की शाखें हिलती हैं-
जाड़े की रात में, मृतक के हाथ में सफे़द हाड़ की तरह-
जहाँ वन
आदिम रात की गंध
छाती में लिए अंधेरे में गाते हैं गीत-
वहीं हो तुम।

निस्संग
हृदय के गीत में
अंधेरी रात की हवा की तरह
एक दिन आकर, दे गयी थी उतना
जितना संभव था एक
रात के लिए।