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‘ऊषा’ की असली कहानी / मालचन्द तिवाड़ी

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राजस्थानी भाषा के जाने-माने साहित्यकार श्री मालचंद तिवाड़ी ने बिज्जी के बारे में कुछ संस्मरण कविता कोश के साथ साझा किए:

विजयदान देथा 'बिज्जी' का जन्म 1 सितम्बर, 1926 को हुआ था। उनके इकलौते काव्य-संकलन 'ऊषा' का प्रकाशन उनकी तीस वर्ष की आयु में ईस्वी सन् 1949 में हुआ। बिज्जी इस अवधि में जसवन्त कॉलेज, जोधपुर में एम. ए. के विद्यार्थी थे। उनका यह एम. ए. अधूरा ही रहा, मगर इस दौरान उन्होंने शरारतों का एक ऐसा विशद् अध्याय पूरा रचा जिसका एक विलक्षण सर्जनात्मक पृष्ठ उनके 'ऊषा' काव्य-संकलन को कहा जा सकता है। लेकिन 'ऊषा' की कहानी बतलाने से पहले उनके शरारतों के अध्याय के एकाध और अद्भुत पृष्ठ पर नजर दौड़ा लेना भी बुरा न होगा।

एक बार उनके कॉलेज के किसी कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध सर्वोदयी सन्त विनोबा भावे आए थे। विनोबा ने छात्र-छात्राओं की एक सभा को सम्बोधित किया। इसके पश्चात शंका-समाधान की दृष्टि से एक प्रश्नोत्तर सत्र भी रखा गया। बिज्जी अपनी शरारत का पूरा कथानक ठीक अपनी किसी कहानी की तरह पहले से बुनकर पहुँचे थे। सबसे पहले उनका एक तैयारशुदा साथी बोला, "एक लघुशंका मेरी भी है! " सभा में ठहाका गूंजा और इसके शांत होने से पेशतर बिज्जी उठ खड़े हुए, "एक दीर्घशंका मेरी भी! "

शोरगुल थमने के बाद बिज्जी ने विनोबा के प्रति अपनी शंका रखी, "श्रीमान ने अपने उद्बोधन में एक विशेष प्रकार की टोपी को गांधी-टोपी की संज्ञा दी। मेरी शंका यह है कि गांधीजी ने वैसी टोपी कभी पहनी ही नहीं, फिर इसका नाम गांधी-टोपी कैसे पड़ा? "

सन्त विनोबा इस सर्वथा अप्रत्याशित प्रश्न से अचकचा-से गए. वे जवाब में कुछ सोच-बुन ही रहे थे कि बिज्जी ने अगला प्रश्न उछाला, "श्रीमान बताएँ, क्या यह फेलेसी ऑफ नोनकॉजा प्रोकॉजा नहीं है? "

यह प्रश्न पश्चिमी तर्कशास्त्र 'लॉजिक' के हवाले से था। इसके अनुसार फेलेसी मिथ्या तर्क अथवा तर्काभाष को कहते हैं। विनोबा ने हड़बड़ाकर पूछा, "यह क्या होता है? "

"आपने लॉजिक पढ़ा है? " बिज्जी उद्दंडता के पूर्णावतार बनकर पूछने लगे।

विनोबा ने विनम्रता से कहा, "नहीं भाई, नहीं पढ़ा।"

"फिर आप मेरी शंका का समाधान कर ही नहीं सकते।" कहकर बिज्जी अपने स्थान पर बैठ गए. पूरी सभा मानो सन्निपात की चपेट में आ गई. आयोजकों ने धन्यवाद ज्ञापित कर सभा समाप्ति की घोषणा करने में ही भलाई समझी।

बिज्जी की शरारतों का यह अध्याय काफी सुदीर्घ है। वे अपने प्रौढ़ लेखकीय जीवन में इन शरारतों का भारी पछतावा भी करते रहे; लेकिन कोई उपाय न था, ये तो हो चुकी थीं और उनकी धवल-कीर्ति के अच्छे-बुरे पहलू की तरह स्वीकारी जा चुकी थीं। 'ऊषा' वस्तुतः काव्य-संकलन से पहले उनकी एक सुन्दर सहपाठिन का नाम था। बिज्जी उसके रूप-सौन्दर्य और गंभीर व्यक्तित्व से सम्मोहित थे। वहाँ उनकी किसी शरारती सूझ से काम चलने वाला नहीं था। बिज्जी ने काव्य-उपकरण का सहारा लिया और 'ऊषा' के श्लेष की आड़ लेकर अपनी सहपाठिन उषा के हृदय में अपनी जगह बनाने की भाव-चेष्टा करते हुए ये बावन कविताएँ रचीं। रचकर अपने पास रख लेने में तो प्रयोजन-सिद्धि होनी न थी, इसलिए इनका पुस्तकाकार प्रकाशन भी आवश्यक था। संक्षेप में, 'ऊषा' की कविताओं की यही असली कहानी है।