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मेरा गाँव / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास

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देखी है मैंने अपने गाँव की सुन्दरता, तभी तो चाह भी नहीं बची
है देखने की किसी और सौन्दर्य की इस धरा पर; नीरव रातों में जाग कर
देखा था गूलर के छतराये पत्तों के छाये तले बैठे
भोर के नीलकंठ को – और चारों ओर देखा था,
जामुन, बरगद, कटहल और पीपल के सूखे पत्तों के ढेर का ढेर,
और जहाँ तहाँ बिखरे झड़बेरियों पर पड़ती उनकी छाया;
चाँदनी के रथ से ही चाँद ने भी न जाने कब देखा था चंपा तले
बरगद की नीली छाया में मेरे इस गाँव के अथाह रूप को।

देखा था एक दिन बेहुला ने भी नदी में बहती हुई अपनी डोंगी से –
जब कृष्ण पक्ष के द्वादशी का चाँद भी डूब चुका था उसी नदी में –
लहलहाते सुनहले धान के खेतों के पार
झूमते पीपल और बरगद के असंख्य पेड़ों को,
हाय, और सुना था शामा-चकेवा के कारुणिक गीतों को –
एक दिन गाँव की अमराई से गुजरते हुए
जब वह नाची थी इन्द्र की सभा में खिन्न खंजन की भाँति -
तब रोये थे इसी गाँव के घाट और पुटुस लिपट कर उसके पांव में घुँघरू की भाँति।