भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जुम्मे को इतवार बनाकर / राजश्री गौड़

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:40, 6 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजश्री गौड़ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जुम्मे को इतवार बना कर क्या होगा,
ये बातें बेकार बना कर क्या होगा।

लाखों गुल मुरझाये हों जब दुनिया के,
घर में इक गुलजार बना कर क्या होगा।

कश्ती अगर डुबोने वाले अपने हैं,
फिर कोई पतवार बना कर क्या होगा।

हाथों का बल अगर हमारे छूट गया,
आँखों को अँगार बना कर क्या होगा।

तन्हाई से इश्क हो गया जब हमको,
भीड़ का फिर संसार बना कर क्या होगा।

हुई दोस्ती जब लाचारी से तेरी,
फिर कोई त्योहार बना कर क्या होगा।