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तुम / निधि सक्सेना

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बड़ा कौतुक भरा है जिंदगी का कैनवास
हर स्मृति अनंत में तिरने को तत्पर...
हर पल दूसरे पल से विलग होने को आतुर
किसी रहस्य के जैसा...

विभक्ति के इसी रहस्य की आकृति हो तुम
तुम्हें बार बार उकेरना
और मन के आँचल में टाँक लेना
विवशता है मेरी
कि बुझते अवचेतन के लिये अमृत का आश्वासन हो तुम...

एक अम्ल भरा कुहासा लीलता जा रहा है
वहाँ मरू सी गर्म हवायें हैं
पराजय के कर्कश स्वर हैं
और अन्धकार भरा क्षितिज है
उस धुंधलके में अच्युत से तुम दिखाई देते हो
कोमल अनुभावों की रश्मिरथी बन उबारते हो ...

पल पल बदलते इस घूसर विस्तार में
एक अर्थभरा आग्रह हो तुम...

हाँ तुम्हें याद करना एक विवशता है
कि मेरे भावों का ठौर तुम्ही हो...

ह्रदय में होते पतझडो में प्रभंजन बन जाते हो
जो झड़ते अविश्वास को उड़ा ले जाता है...

और फिर शेष रह जाती हूँ
शिशु सी निर्मल
भोर सी सुखद
कविता सी भावपूर्ण मैं...