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विडम्बना - 2 / नीता पोरवाल
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गुजर जाएगा एक और दिन
छोड़ जाएगा
क्षत विक्षत अपने अनगिनत अवशेष
अपने होने की असह्य पीड़ा ढोता
कटोरे भर पानी में
छटपटाता सोन मछरी सा
गुजर ही जायेगा एक और दिन
सिर्फ़ सभ्य हुआ हैं इंसान
सुसंस्कृत नहीं
किसी जादुई दुनिया की तलाश में भटकते
अपने दिमाग के हर फितूर का इलाज़
बहुत होशियारी और सहूलियत से ढूँढते
किसी उजले दिनों की आस करते
गुजर ही जायेगा एक और दिन
अपनों में अजनबियों सा
तो परदेसियों में अपनापन तलाशते
अकेलेपन से विक्षिप्त
अपनी त्वचा के नीचे
अनगिनत छिपकलियों की सरसराहट महसूसते
बेतरतीब गिरहें खोलते सुलझाते
किसी तरह गुजर ही जायेगा एक और दिन