Last modified on 22 सितम्बर 2016, at 03:13

विडम्बना - 2 / नीता पोरवाल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:13, 22 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीता पोरवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

गुजर जाएगा एक और दिन
छोड़ जाएगा
क्षत विक्षत अपने अनगिनत अवशेष
अपने होने की असह्य पीड़ा ढोता

कटोरे भर पानी में
छटपटाता सोन मछरी सा
गुजर ही जायेगा एक और दिन

सिर्फ़ सभ्य हुआ हैं इंसान
सुसंस्कृत नहीं
किसी जादुई दुनिया की तलाश में भटकते
अपने दिमाग के हर फितूर का इलाज़
बहुत होशियारी और सहूलियत से ढूँढते
किसी उजले दिनों की आस करते
गुजर ही जायेगा एक और दिन

अपनों में अजनबियों सा
तो परदेसियों में अपनापन तलाशते
अकेलेपन से विक्षिप्त
अपनी त्वचा के नीचे
अनगिनत छिपकलियों की सरसराहट महसूसते
बेतरतीब गिरहें खोलते सुलझाते
किसी तरह गुजर ही जायेगा एक और दिन