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जनक छंद / रामधारी सिंह 'काव्यतीर्थ'

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1
कण-कण में छै भगवान
संत शास्त्रें कहने छै
गुरू बिनु नै हो पहचान।

2
परहित नीक धरम छेकै
जीवन में अपनाय लेॅ
नीक चीज लै के छेकै।

3
धन तेॅ हाथोॅ के मैल
आवेॅ तेॅ जावै देय
नै बनॉे धन के रखैल।

4
पापी सेॅ घृणा नै करोॅ
विनोबा जी कहने छै
पापोॅ सेॅ ही धृणा करोॅ।

5
पर पीड़ा पाप छेकै
पीड़ा नै देॅ केकरहौ
ई बढ़िया नीति छेकै।

6
लक्ष्मी बांधलोॅ रहै नै
वू तेॅ चलतें रहै छै
पियार मिलेॅ, भागेॅ नै।

7
पुंज-पुण्य सें संत मिलेॅ
शास्त्र के ई वचन भाय
सन्त मिलेॅ तेॅ ईश मिलेॅ।

8
काजर के कोठरी में
तोय घुसल्हो तबेॅ नी
लागल्हौं दाग तन में।

9
महिषासुर मर्दनी ही
देवी दुर्गा कहलाय
छेलै अति शक्तिशाली।

10
जे मधु-कैठभ महिषासुर
शंुभ, निशुंभ वध कराय
ऊ दुर्गा केॅ पूजै सुर।

11
ब्रह्माणी, रूद्राणी छोॅ
छोॅ तोॅय कमला रानी
आरू शिव पटरानी छोॅ।

12
जगजननी तोंय भर्ता
भगत के दुःख हरै छोॅ
सुख-सम्पति देतैं छोॅ।

13
छोॅ चार भुजा धारिनी
खड़ग खप्पड़े धारिनी
सेवहौं नर आ नारिनी।

14
नारी-पुरुष जें सेवै
रोज तोरोॅ रूप ध्यावै
मनोनुकूल फल पावै।

15
देव, मुनि, नर जे सेवक
हुनकोॅ व्यथा केॅ हरै छै
शंुभ-निशुंभ-संहारणी।

16
अगर-कपूर के बाती
कंचन थाल शोभै छै
गावै भगतें आरती।

17
जों कोय भी नर गावै
अम्बे जी के आरती
सुख-सम्पत्ति घर आवै।