भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रारब्ध पहिनें बनै / रामधारी सिंह 'काव्यतीर्थ'
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:12, 24 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामधारी सिंह 'काव्यतीर्थ' |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
प्रारब्ध पहिनें बनै, पीछू बनै शरीर
ई तेॅ बड़ोॅ आश्चर्य छै, मन नैं बाँधै धीर।
करलोॅ करम तेॅ आपनोॅ भोगेॅ पड़थौं जरूर
करोड़ कल्प कैन्हें नी बीतेॅ, ऊ नै टलथौं हुजूर।
सोयवाला कलिकाल छेकै, निद्रात्यागी द्वापर
खड़ा होय गेलै ऊ त्रेता, कृतयुग श्रम करै पर तत्पर।
जहाँ मूर्ख सम्मान नैं पावै, अन्न-धन सें भरलोॅ रहै
कलह नै हुऐ पति-पत्नी में, तहाँ लक्ष्मी स्वयं वास करै।
बहुयोजन फैललोॅ पाप भी, ध्यान योगोॅ सें नष्ट होय जाय
दोसरोॅ कोनो उपाय सें भी, ओकरोॅ नाश नैं होय पाय।