फरवरी रोॅ साँझ / शिवनारायण / अमरेन्द्र
पलंग के पौआ केॅ चिकनैतें
बढ़य के हाथ
जबेॅ रन्दा पर
सरल-सीधा गति में
आगू-पीछू फिसलतें रहै छै
एकरसे
तबेॅ ढलतें दुपहरिया के
पुरवैया हवा
नारियल के सोझोॅ शाखा पर इस्थिर
हठासिये निहारेॅ लागै छै
बढ़य के हाथें
पूरा होतेॅ
सृजन के ऊ एकान्त केॅ
जे गवाही बनतै
टापेटुप अन्हरिया राती के शृंगार के
आरो तबेॅ
चहचहावेॅ लागै छै
धारायाती में उड़तेॅ पक्षी
सरसरावेॅ लागै छै
ठामें गाछोॅ के पीरोॅ पत्ता
शोर मचावेॅ लागै छै
उषुम अलसैलोॅ रौदी में
क्रिकेट खेलतेॅ बच्चा
आरो अठखेली करेॅ लागै छै
मौसम के मखमली खुनक में
पनघट के किनारी में
किशोरी सब!
बढ़य रोॅ हाथ
अभियो
रन्दा पर फिसली रहलोॅ छै
कि दूर पहाड़ी रोॅ अंचरा सें
बितलोॅ आधोॅ फरवरी के साँझ
आपना में
सौसें सृष्टि केॅ समेटलेॅ
उतरी रहलोॅ छै
आहिस्तेॅ-आहिस्तेॅ-आहिस्ता।