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आखिर कब तांय / शिवनारायण / अमरेन्द्र

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बड्डी मुश्किल छै
आयकोॅ कठिन वक्ती में
ई शहर में जीत्तोॅ बचवोॅ
तहियो हम्में जीत्तोॅ छी
आरो डरले-डरले सही
शहर रोॅ सब्भे गति-विधि में
उदासीन भावोॅ सें
विचरै छी।

ई शहर रोॅ हरेक आदमी
कोय्यो भीड़ के हिस्सा होय्यो केॅ
अपना केॅ असकरोॅ
एकदम असकरोॅ पावै छै
भावशून्य छन्द के यति-गति में
ओकरोॅ हर संवेदना
यांत्रिक होलोॅ चल्लोॅ गेलोॅ छै
भोरे सें साँझकी तक के रोजकोॅ सफर में
जबेॅ रोज साँझकोॅ वक्ती
थकलोॅ-हारलोॅ ऊ
दस्तक दै छै
अपनोॅ घरोॅ के केवाड़ी पर

तबेॅ ओकरा कत्तेॅ हैरत होय छै
जीत्ते जी घर घुरी आवै पर...
मजकि जबेॅ बुतरू के चंचल आँख
मीट्ठोॅ बात
शरारत
आरो जनानी के रोजकोॅ बातोॅ में
चाहियोॅ केॅ भी
शांति नै महसूस करै छै
आरो नै जिनगी के संगीत में
रस के मिठास
तखनी कुछुवो नैं
तय करेॅ पारै छै ऊ
कि ओकरा में
कुच्छू जीत्तोॅ भी छै की!
आखिर कब तांय
लेंगड़ोॅ भय के आतंक नीचें
हममें अपनोॅ व्यक्तित्व
अपनोॅ आपा
अपनोॅ आत्मबल केॅ
ऊ सब के हाथोॅ में बंधक रखी
अपनोॅ नामर्द मर्दानगी केॅ
देतें रहवै संतोख
जे हाथ हुनकोॅ नै
केकरो आरो के... आरो के
केकरो आरो के छेकै!