उनका विस्तार ही नहीं होता
तू जो आधार ही नहीं होता
बीच मँझधार ही नहीं होता
तू जो पतवार ही नहीं होता
बंद मुठ्ठी में मोम रहता तो
स्वप्न साकार ही नहीं होता
मार खाता अगर न साँचे की
मोम आकार ही नहीं होता
हर क़दम पर ठगा गया फिर भी
तू ख़बरदार ही नहीं होता
जो शरण में गुनाह करता है
वो गुनहगार ही नहीं होता
बेच डालेंगे वो तेरी दुनिया
तुझ से इनकार ही नहीं होता
जो खबर ले सके सितमगर की
अब वो अखबार ही नहीं होता
मुन्तज़िर है उधर तेरा साहिल
फिर भी तू पार ही नहीं होता
जब परिन्दे कुतर सके पिंजरा
यह चमत्कार ही नहीं होता
जो मुखौटा कोई हटा देता
तो वो अवतार ही नहीं होता
‘द्विज’, तू इस ज़िन्दगी की बाहों में
क्यों गिरफ़्तार ही नहीं होता