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चौदमोॅ सर्ग / कैकसी / कनक लाल चौधरी 'कणीक'

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चौदमोॅ सर्ग

राजभवन में बैठि कैकसी पल पल सगुण विचारै
जीत-हार के अंग गणित में अपनोॅ मन केॅ ढारै

जीत-हार दू अंगुरि मानी सुलाचना लग जावै
बोलै पकड़ोॅ एक टा अंगुरी है कहि वेॅ पकड़ावै

फेनु मन्दोदरी, धान्यमालिनी सें बात वही दोहराबै
कभी जीत आरो कभी हार के अन्देशा मन पाबै

ई रंङ कैकसी मास दिवस धरि सगुण फेर में रहलीं
बीच-बीच में असुर देवी के अरदासोॅ में गेलीं

छटपट करतें पाँच मीना ओकरोॅ जबेॅ बीती गेलै
रावण केरोॅ दूत खुशी केॅ लै ओकरा लग अैलै

जीत खुशी केॅ सुनी कैकसी हर्ष सें अपरंपार
तुरत उतारी दूत केॅ देबै मोती लड़लोॅ हार

जीत खुशी केॅ सुनै लेॅ दौड़ै सैसें टा परिवार
फिन है खबर फैललै सगरो राजभवन के पार

कैकसी पकड़ि सुकेशी केॅ फिन नांचि-नांचि देखावै
मन्दोदरी, सुलोचना साथें धान्य मालिनी नाँचै

सैंसे टा सेाना के लंका खुशी नाँच में डूबै
असुर संगे यक्षिणी नांच करि एक दूजे अंक छूवै

दूत केॅ फेनुं ठिठकतें देखी कैकसी कारण बूझै
काका सुमाली मरण सुनी फिन ओकरा नैं कुछ सूझै

हर्ष-गमोॅ के बीचें कुछ क्षण कतेॅ भाव ठो जागै
फेनूं गमोॅ केॅ त्यागी कैकसी हर्ष करै में लागै

मेघनादें-रावणें जेन्हैं सुरपति बान्धि केॅ लाबै
बन्धलोॅ सुरपति केॅ देखै लेॅ लंका वासी धाबै

मेघनादें दादी के प्रण केॅ पूरा होवोॅ बत्ताबै
कैकसी के फिन पैर इन्द्र से आबि तुरन्त छुआबै

फेनु इशारा पावि अकंपन बन्दी घर लै जावै
इन्द्र असकरें देखि कैकसी मन में शंका पावै

बोलै पुत्र उपेन्द्र कहाँ छै हौ केन्हैं नीं बंधैलै?
हमरोॅ पिता के हत्यारा कैन्हैं नीं बन्धावेॅ पारलै

रावण बोलै हौ उपेन्द्र विष्णु बनि अलगे भेलै
यै लेली हौ इन्द्र पक्ष में लड़ै न रण में अैलै

युद्ध भयंकर देखी विष्णु कांहीं जाय नुकैलै
जेकरा सें ही हौ बहुरुपिया छलिया हाथें नैं अैलै

पुत्र दशानन के सुनि कैकसी मन में सोचै बात
आबेॅ पुत्र त्रिलोकपति तेॅ विष्णु के की औकात?

तीन दिवस धरि जीत खुशी केॅ उत्सव हौंते रहलै
राजकोष के द्वार सदाव्रत दान में खुलतें रहलै

धरती आरो पाताल के राजा उत्सव देखै आबै
उपहारोॅ के साथ-साथ वै कर भी आबि चुकाबै

असुर गुरु आचार्य शुक्र भी राजमहल में आबै
रावण मेघनाद मिली दोन्हूं गुरु केॅ शीश नबावै

गुरु आगमन जानि कैकसी साथ लैकेॅ परिवार
पैर छूवि केॅ गुरु सें बोलै तोरोॅ कृपा अपार

हे प्रभु तोहरे कृपा सें होलै रक्ष वंश उद्धार
ये लेली सभ असुरें तोरा नमै छौं बारम्बार

दै आशीष शुक्र गुरु गेलै सभ्भे राजा भी जाबै
विजयोत्सव के पूरा होथैं महल में शान्ति छावै

फेनू कैकसी रावण केॅ मन्दोदरी चरित बताबै
कत्ते छै ऊ चतुर सयानी आबेॅ समझ में आबै

जबेॅ मन्दोदरी मेघनाद संग मयपुर चल्लोॅ गेलै
तखरी हमरा जिनगी में भारी एकापन अैलै

बेटा-पोता कोइयो नै हमरा लग तखनी छेलै
सबके रूच रखै के खातिर बड्डी निराशा भेलै

आबै हौ सोचै छी हम्में मन्दोदरी चलांकी
जै उपलब्धि पाबी रहलै कोय अरमान नैं बांकी

जो पोता केॅ माया युद्ध के शिक्षा नहियें होतियै
तेॅ इखनी देवेन्दर लंका बन्दी नैं होय अैतियै

ठीक वही क्षण ब्रह्मा आबी रावण सम्मुख भेलै
बोलै वत्स पराक्रम तोरोॅ तिहूं लोकोॅ में छैलै

तोरोॅ पुत्र जे मेघनाद छै ऊ आरो बलशाली
इन्द्रजीत बनि देवों सें जें स्वर्ग कराबै खाली

फिन कैकसी तरफें मुड़ि ब्रह्मां ओकरा इ समुझाबै
तोरोॅ पोता बेटां मिलि तोरे अरमान पुराबै

हम्में जानौं जे खातिर तों हमरे कुलवधु बनल्हौॅ
कुल के अंश दशानन लै अपनो मनमानी करल्हौॅ

सभटा आस पुरी गेल्हौं तों देवराज छोड़वाभोॅ
तोरे कहलां लंका राजा, रावण केॅ समुझावौॅ

फिन रावण तरफें मुड़ि ब्रह्मां रावण केॅ बतलाबै
बालि सहस्त्रार्जुन रण-प्रसंग रावण केॅ याद दिलाबै

मेघनादें, रावणें, कैकसीं ब्रह्मा बात केॅ मानी
इन्द्र केॅ मुक्त करी केॅ इन्द्रजित ब्रह्मा आगू आनी

ब्रह्मा बोलै सुरपति तोहें बहुत अनर्गल करल्हौॅ
अपनोॅ करनी के कारण तों ऐन्हों दण्डित भेल्हौॅ

मर्यादा के साथ जों तोंहे सुरपुर नहीं चलैभौॅ
ते फेनु इ रंङ अपमानित होवै केॅ फल पैभौॅ

इ कहि ब्रह्मा रावण केॅ सुरपति के निकट बुलाबै
दोनों केरोॅ हाथ एक दूजे के संग मिलवाबै

देवासुर संग्राम कथा के ब्रह्मां करै विदाई
बोलै अब कभियो नै होवै, दोन्हूं बीच लड़ाई

इ कहि ब्रह्मा ब्रह्मलोक सुरपति सुरपुर को जाबै
फिन लंकापति राज-पाट दिश अपनोॅ नजर घुमाबै