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दो शुभ संगति दीन दयाल / बिन्दु जी

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दो शुभ संगति दीन दयाल।
जो मानस मन कर देती है मानस राज मराल॥
यद्यपि पामर वेष देश वन ग्रह गिरि तरु की डाल।
किन्तु राम सेवा से घर घर पुजे अंजनी लाल॥
कला चतुर्दशहीन क्षीण द्युति काम कलंक कराल।
ईश शीश के नाते बंदित हैं वह रजनीपाल॥
‘बिन्दु’ वारि में बहकर बनता है वारीश विशाल।
सुमन संग से चींटी चढती चन्द्रभाल के भाल॥