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सेज बिछ गई / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
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सेज बिछ गई हरसिंगार की!
आज कौन इस पर सोयेगा,
हर सपना यों-ही रोयेगा,
चेतन है झंकार बहुत ही
आज पीर के तार-तार की!
सेज बिछ गई हरसिंगार की!
आंसू सोएँ तो सो जाएँ,
गोरी बाँहों में खो जाएँ,
इन हंसती किरणों के भय से
या-कि सुरा पी कर बयार की!
सेज बिछ गई हरसिंगार की!
इन पानी उतरे फूलों ने,
शबनम के उतरे झूलों ने,
फिर से कर दी तरल तूलिका
निशि-भर जागे चित्रकार की!
सेज बिछ गई हरसिंगार की!