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आज, अभी / सुजाता

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मुलायम ही दीखता है दलदल लेकिन
धँसते धँसते जब धँसने ही वाली हो नाक भी
तब पूरा दम लगाकर भी निकला नहीं जा सकता इससे बाहर।

मैंने नहीं खोजे थे अपने रास्ते और अपने दलदल भी नहीं चुने थे
आज़माए रास्तों पर से गुज़रने वाली पुरखिनें
लिख गयीं थीं कुछ सूत्र किसी अज्ञात भाषा में
जिनका तिलिस्म तोड़ने के लिए मरना ज़रूरी था मुझे

सो मरी कई बार...
बार-बार...

और अब सुलझ गए हैं कई तिलिस्म
समझ गई हूँ कि
मेरे रास्तों पर से निशान वाली पट्टियाँ
उलट देते थे वे जाते जाते।
मार्ग सुझाने का चिह्न शास्त्र भी
अपने ही साथ लिए फिरते थे वे-जंगल के आदिम शिकारी!

अनुगमन करना मेरे लिए विकल्प तो था
पर एकमात्र नहीं
इसलिए सहेज लेना रास्तों पर से फूल-कंद
अनुगमन की ऊब से निजात देता था।
पीडाएँ गाती थीं समवेत और मुक्त कर देता था नाच लेना बेसुध!

यह आसान मुझ पर कितना मुश्किल बीता

इसकी कहानी नहीं सुनाने आयी हूँ मैं।
मुझे पूछना है तुमसे साफ़–साफ़ कि पिछली पीढियों में अपनी धूर्तता की कीमत
कभी किसी पीढ़ी में तो तुम चुकाओगे न तुम!
करना ही होगा न साहस तुम्हें?
तो वह आज और अभी ही क्यों न हो!