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दिलो—दिमाग़ को वो ताज़गी नहीं देते / द्विजेन्द्र 'द्विज'
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दिल—ओ—दिमाग़ को वो ताज़गी नहीं देते
हैं ऐसे फूल जो ख़ुश्बू कभी नहीं देते
जो अपने आपको कहते हैं मील के पत्थर
मुसाफ़िरों को वो रस्ता सही नहीं देते
उन्हें चिराग़ कहाने का हक़ दिया किसने
अँधेरों में जो कभी रौशनी नहीं देते
ये चाँद ख़ुद भी तो सूरज के दम से क़ायम हैं
ये अपने बल पे कभी चाँदनी नहीं देते
ये ‘ द्रोण ’ उनसे अँगूठा तो माँग लेते हैं
ये ‘ एकलव्यों ’ को शिक्षा कभी नहीं देते