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ज़िन्दगी से उजाले गए / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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ज़िन्दगी से उजाले गए

द्वेष जब—जब भी पाले


बाँटने जो गए रौशनी

उनपे पत्थर उछाले गए


फ़स्ल है यह वही देखिए

बीज जिसके थे डाले गए


बुत बने या खिलोने हुए

लोग साँचों में ढाले गए


लोग फ़रियाद लेकर गए

डाल कर मुँह पे ताले गए


पाँवों नंगे, सफ़र था कठिन

दूर तक साथ छाले गए


लेकर आए जो संवेदना

वो क़फ़न भी उठा ले गए


मुँह लगीं इस क़दर मछलियाँ

ताल सारे खंगाले गए


अब सफ़र है कड़ी धूप का

पेड़ सब काट डाले गए


क़ातिलों के वो सरदार थे

क़ातिलों को छुड़ा ले गए


लोग थे सीधे—सादे मगर

कैसे हाथों में भाले गए


एक भी हल नहीं हो सका

प्रश्न लाखों उछाले गए


वो समंदर हुए उनमें जब

नद्दियाँ और नाले गए