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जोग न ज्यादा खेल / प्रमोद तिवारी

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ओ, रे जोगी...!
जोग न ज्यादा खेल

देख तेरी परछाई
तेरे
कद को
लांघ रही है
है कितनी हरजाई
सारी
हद को लांघ रही है
दीपक पल-पल
जलता जाता
पल-पल जलता तेल
ओ, रे... जोगी...!

मन का हिरण
साध सके
तो
तन सोने का होवै
तन तो है
माटी का ढेला
फिर क्यों माटी ढोवै
काहे पंख पसार रहा
जब
काट रहा है जेल
ओ, रे... जोगी...!

क्यों तू
वन-वन
भटक रहा है
वन है तेरे अन्दर
वन में शेर
सांप, भालू, चीता
हाथी ‘औ’ बन्दर
कौन भीड़क जाये
कब कैसे
साधे रहो नकेल