भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धूप सीधे आइने पर है / प्रमोद तिवारी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:59, 23 जनवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमोद तिवारी |अनुवादक= |संग्रह=म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धूप सीधे आइने पर है
और चेहरों पर मुखौटे हैं

कठपुतलियों की पकड़कर डोर
मनचाहा नचातीं
कुछ अंगुलियां हैं
घोंसलों की बात
मत करिए, यहां पर
पास में उनकी बिजलियां हैं
खेल सब बाजीगरों के हैं
हारकर हर दांव लौटे हैं

पालने में ही मिली
यात्रा पहाड़ों की
जन्म से ही
फूलता है दम
कोशिशें जितनी भी की हैं
मुस्कराने की
आँख उतनी ही हुई है नम
उड़ न पाये
पास अम्बर है
मन बड़ा है
पंख छोटे हैं

हर नदी
जैसे बिछौना
रेत का हो
बोलती है
बूंद की तूती
मुंह खुले हैं
सीपियों के
बंद ही होते नहीं
बनते नहीं मोती
वक्त की अपनी कसोटी है
हम खरे होकर भी खोटे हैं