भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शहर में साँप / 34 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:10, 1 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रप्रकाश जगप्रिय |अनुवादक=च...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
साँप भाइग रहल रहै
आदमी ओकरा रोक रहल रहै
वैं कहलकै किये रुकवै, कहाँ रुकवै
आबेॅ तेॅ
अपन आस्तिन में भी तोंही रहै छैं।
अनुवाद:
साँप भाग रहा था
आदमी उसे रोक रहा था
साँप ने कहा-क्यों रुकूँ, कहाँ रुकूँ
अब तो
अपने आस्तिन में भी तुम्हीं रहते हो।