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दीप और मैं / श्वेता राय

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काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते

याद तुम्हारी वनफूलों सी
महकाती है अंतर्मन को
भावों की कोमल अंगड़ाई
बहकाती है कोमल तन को
काश! कभी अपनी पलकों से हम तेरा अर्चन कर लेते
काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते

तेरी साँसों की वीणा पर
सजना चाहूँ सरगम बनकर
तेरे अंतस के आँगन में
बसना चाहूँ धड़कन बनकर
काश! कभी मेरे सपनोँ को तुम अपना अवलम्बन देते
काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते

मेरे सपनोँ की नियति ज्यूँ
लहरों का तट से टकराना
हरपल टूटे पागल मन से
तेरे छल को प्रीत बताना
काश! कभी मेरी बाँहों में तुम अपना सब अर्पण करते
काश! कभी ऐसा होता कि हम तुमको अपना कह लेते...