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दलो शिकारी / मुकेश तिलोकाणी
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अॿोझु
केतिरा दफ़ा खणी आयो
ऐं, घणा भेरा ढोए वियो।
खु़शी, खीसे में
ऐं, दुःख खे
दिलि में दॿाए वियो।
”हा“ कॾहिं
”न“ जो रूप न वरितो।
हिमथ, क़दम क़दम ते
पेर फटियाईंसि
दले शिकारीअ
पंहिंजो निशान
अखि मं ताणे रखियो
ऐं, अॿोझु
बे ख़बरि
नीरे खलिए आकाश खे
तकींदो रहियो।