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लग़ड़ी / मुकेश तिलोकाणी
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पूछड़ी पतंग
रंगा रंगीअ लग़ड़ीअ
खुलियल आकाश में
पेरु धरियो आहे
फूह जवानी
मन में मस्ती
कॾहिं
उतर खां ओभर
कॾहिं ओलह खां ॾखणु
सरि सराहट ऐं
खड़ खड़ाहट कंदे
ॼणु टहिकु ॾई
ध्यानु छिकाए
झटण जी इच्छा
पर...पर...
ॾोरि कटि जो
पको अंदेशो
रंगारंगी लग़ड़ी
नीले आकाश में
अलूप थी वेंदी