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सलो सिक जो (कविता) / लक्ष्मण पुरूस्वानी

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करे सदु तो, पुकारियो छो!
खणीं नजरूं, निहारियो छो!!

निमाणें न्याज सां, मुरिकी!
सलो सिक जो, उभारियो छो!!

विसाइण लाइ, तो आशा जो!
दीओ रोशन, देखारियो छो!!

निभाइण जी न, दिल में जे!
उमेदुनि खे, उथारियो छो!!

अन्धेरनि में, हुओ रखिणों!
शमा जो लोभु, दियारियो छो!!

रखी थधकार जी चाहत!
मूंखे उस में, बिहारियो छो!!

ॿुदुसु थे सीर में जदहिं
झले हथु पाण तारियो छो!!

न चाहत जे हुई दिल में
पलकुनि में विहारियो छो!!

टुटल मूं साज खे, पहिंजा!
दई सुर तो, जिआरियो छो!!

नवाज़िश जे, दिलासनि सां!
सदे, दर तां धिकारियो छो!!