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रची दिसु कंहि रंग में / लक्ष्मण पुरूस्वानी

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सुहिबत कजे गुलनि सां, त पिया बाग़ वणन्दा
मिलन्दी जे खुशबू त, कंडा बि लॻन्दा

अंधेरा बि आहिनि, आहे रोशनी पिण
कदहिं टहिक ईन्दा, कदहिं लुड़िक वहन्दा

रंगनि जी जॻ में, कमी नाहे काई
रची तूं बि दिसु, नवां साज़ वॼन्दा

मन्जिल त मिलन्दी, मगर होश घुरिजे
मुफ़िलिस बि कंहि दींह धनवान बणन्दा

शराबनि जी शह ते बहकी वञूं जे
दिसी गैर ई छो पहिंजा बि खिलन्दा

करे संगु संतनि जो सत्कर्म कनि जे
नसीहत पिराए सुखी, छो न रहन्दा

दुखनि जो आ दरियाहु दुनियां दुरंगी
शेवा सां ‘लक्षमण’ ॿेड़ा पाण तरन्दा