भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन जाड़ों के / रमेश तैलंग
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:40, 15 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश तैलंग |अनुवादक= |संग्रह=मेरे...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पंख लगाकर आते हैं दिन जाड़ों के।
फुर्र-फुर्र उड़ जाते हैं दिन जाड़ों के।
कट-कट-कट-कट दाँत कटा-कट,
बाहर निकलो धूप सफाचट,
बड़ी मुसीबत लाते हैं दिन जाड़ों के।
गर्म पकौड़े भर-भर थाली,
चाय साथ में भर-भर प्याली,
दे कोई तो भाते हैं दिन जाड़ों के।
हर कमरे में हीटर, गीजर,
सूट, रजाई, कंबल, स्वेटर,
हों तब ही घबराते हैं दिन जाड़ों के।