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सूख रहे धान / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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सूख रहे धान और पोखर का जल,
चलो पिया गुहरायें बादल-बादल।

रंग की नुमाइश इन्द्र नहीं लाये,
नदी नहीं बाहें तट तक फैलाये;
सजे कहाँ मेघ-अश्व
बजे कहाँ मादल,
क्षितिजों की आँखों में अँजा कहाँ काजल।

लदे कहाँ नींबू, फालसे, करौंदे,
बये ने बनाये कहाँ घर घरौंदे,
पपिहे ने रचे कहाँ
गीत के महल,
गजल कहाँ कह पाये ताल में कँवल।

पौदों की कजराई धूप ले गई
टूटती उमंगों के रूप दे गई
द्वारे पर मँहगाई
खटकाती साँकल
आई है लेने कंगन या पायल।

इन्द्र को मनायेंगे टुटकों के बल
रात ढले निर्वसना जोतेंगी हल
दे जाना, तन-मन से
होकर निर्मल
कोंछ भर चबेना औ लोटे भर जल।