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कुछ अदेखा सा / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
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कुछ अदेखा सा
अनावृत हो रहा है,
क्या करूँगा-
तोड़कर मैं आवरण को।
यह धुएँ के वृत सा बनना-बिगड़ना,
पारदर्शी ज्योति का दिखना न दिखना;
कौंध फिर ऐसी-
कि कुल मस्तिष्क बरसा
एक क्षण को जनम तरसा गया तर-सा
यात्रा:
मुझमें समायी जा रही है,
क्या करूँगा छोड़कर इस अनुभवन को।
शब्द-वन में पैठना छाया-चरण का,
दूर तक दिखना अबाधित संतरण का,
यह असंकेतित चले जाना कहीं को;
ऊर्ध्वमुख हो, छोड़-सा देना मही को,
यह अजानी राह
कितनी रसमयी है,
क्या करूँगा छोड़, इस अमरण-
मरण को।