दग्धदाही पवन
हाँफती है सड़क
तारकोली जीभ काढ़े,
उमस के गुंजल्क में
निस्पन्द, शीतल नहीं छाया
नीमवाली,
एक भी पत्ती न हिलती
या मुरकती
अग्नि-मन्त्रों से यथा कीलित,
प्रताड़ित आन्तरिकता तोड़ती
अनुबन्ध
रगरग टूटती सी देह
कोई
बावली बदली नहीं है क्या?
दौड़कर उत्कण्ठिता हो
भाल पर जो छाँह घर दे
कठिन, समतल, रेत-बंजर और
टीले-र्पतों को, उत्स भरकर
संग मेरे पार कर दे।