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प्रत्यावर्तित गतियों का दर्द / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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शिखरों से भी आगे
किन्हीं मोड़ो पर
पहुँचने को आतुर
मेरी यात्रा
अक्सर देखती रही
हवा-चीरते अन्तरिक्ष यानों की गतियाँ,
धुन्ध भरे धकियाये आसमानों की स्थितियाँ,
छाया भासित
ग्रह, अनगिन नक्षत्र, चन्द्र रवि रहे घूमते
विद्युत स्फुरित इसी देह के इर्द-गिर्द
पर
हुआ सदैव यही कि अचानक
मेघ-घटा गट्ठर से
छूट गिरी जल-बूँदों जैसी मेरी यात्रा,
आ पहुँची फिर
बरसों परिचित
उसी अवांक्षित गलियारे पर
हुआ जहाँ एकत्र वही बरसाती मलबा
कूड़ा कचड़ा
जिसे मँझाते पशुओं जेसे सभी
प्रबुद्ध-बुद्ध या भावुक।