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कागज की नाव / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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लहरों को
ऊपर-नीचे
ऊट पटाँग फेंकती है-
नदी की धार,
दहशत में काँपता है
शाम का बढ़ता हुआ घना अन्धकार,
और
ये कागज की नावों पर
बैठे हुए लोग:
कितने निश्चिन्त हैं-
जैसे बचा लेंगे इनको
माटी के माधव
जिनके हाथों में दिखती है
सरकंडों की पतवार।