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यही नहीं / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
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लता लिपटे
हरसिंगार के नीचे बैठें
आँखों आँखों लहरें...
लहरायें
तलहीन गहराइयों में पैठें
पैठते चले जायें;
पर
जब भी कोई
डूबना-डुबाना चाहे,
दृष्टियाँ खींच लें,
शब्द की रज्जु पकड़ लें
ऊपर उतरायें
होठों-होठों दुहरायें
नहीं....नहीं....नहीं
यह नहीं।