Last modified on 18 फ़रवरी 2017, at 08:46

शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ / दिनेश गौतम

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:46, 18 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ
क़द से लंबी हो गईं परछाइयाँ

ये सियासत की गली है, लाख बच,
तय यहाँ तेरी भी हैं रुसवाइयाँ

महफ़िलों की बात हमसे, क्यूँ भला,
चुन रखी हैं हमने तो तनहाइयाँ

कितनी उथली थी नदी, जिसकी तुम्हें,
था वहम कि खू़ब हैं गहराइयाँ

हो भले मातम यहाँ, पर उसके घर
किस तरह से बज रहीं शहनाइयाँ

ये हुनर क्या खू़ब उसने पा लिया,
‘धूप’ साबित हो गईं ‘जुन्हाइयाँ’

एक शायर की वसीयत क्या भला,
चंद ग़ज़लें, गीत औ‘ रूबाइयाँ