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वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर / बुल्ले शाह

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वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर,
आशकाँ दिनाँ ना समझे कोर।
कोठे चढ़ के देवाँ होका,
जंगल बस्ती मिले ना ठोर।

वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर।

आशक देाहीं जहानी मुट्ठे,
नाज़ माशूकाँ दे ओह कुट्ठे,
किस तो बाँधा फट्ट तलवार।

वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर।

दे दीदार सोया जद माही,
अचनचेत पई गल फाही।
डाढी कीती बेपरवाही,
मैनूँ मिल ग्या ठग्ग लाहौर।

वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर।

शीरीं है बिरहों दा खाणा,
कोह चोटी फरिहाद निमाणा।
यूसफ मिसर बाज़ार विकाणा,
इस नूँ नाही वेक्खण कोर।

वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर।

लैला मजनूँ दोवें बरदे,
सोहणी डुब्बी विच बहर दे।
हीर वन्जाए सभे घर दे,
इस दी छिक्की माही डोर।

वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर।

आशक फिदे चुप चुपाते,
जैसे मस्त सदा मध माते।
दाम जुल्फ दे अन्दर फाथे,
ओत्थे वस्स ना चल्ले ज़ोर।

वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर।

जे ओह आण मिले दिल जानी,
उस तों जान कराँ कुरबानी।
सूरत दे विच्च है लासानी,
आलम दे विच्च जिस दा शोर।

वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर।

बुल्ला सहु नूँ कोई ना वेक्खे,
जो वेक्खे सो किसे ना लेक्खे।
उसदा रंग रूप ना रेक्खे,
ओही होवे हो के चोर।

वाह वाह रमज़ सज्जण दी होर।

शब्दार्थ
<references/>