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ताधरि / मनोज शांडिल्य

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कहै छथि ओ
नहि बिकाइत छैक कविता
आकि कविताक पोथी
से किए बिकेतै
कहाँ भेलै कविताकेँ कहियो
बजार सँ प्रेम!

हँ, तखन इहो ठीक
जे जँ भ’ जैतै बजारके प्रेम
कविता सँ
तँ संभव जे
बदलि जैतै बजारक संस्कार
बात-बिचार-व्यवहार

बजार मे भेटितै ओतबे
जतबाक छैक खगता
ने कनिको कम
ने कनिको बेसी
मात्र ओतबहि
जतबा मे होइक
मनुक्खक मुहेंठ पर आधारभूत संतोष
ठोर पर असल बला मुस्की
आ आँखि मे सुच्चा जीवनक ज्योति

जँ होइतै बजारकेँ कविता सँ प्रेम
तँ अबस्से
मुनियाकेँ ऐंठार पर सँ उठा, आ
किसुनमाक हाथ सँ
टेबुल पोछय बला लत्ता झीकि
पठा दैतै इस्कुल इएह बजार

संभव छैक
रसीद-पुस्तिका सँ एकटा पन्ना फाड़ि
ओकर पीठ पर लीखि दितै बजार
कतेको कालजयी कविता

मुदा नहि भ’ सकलै बजारकेँ कविता सँ प्रेम
अपनहि एक-एक दोकान मे
अपनहि हाथे अपन हृदयकेँ कुट्टी-कुट्टी काटि
बेच देलक कहिया ने बजार
ओकरा कोना हेतै प्रेम कविता सँ

जँ क’ सकैत ई बजार कविता सँ प्रेम
जँ क’ सकैत हमर बजारू समाज आलिंगन कविताक
तँ अबस्से द’ दितै कविता ओकरा
ओहि सभ समस्याक निदान कमोबेस
जे तकैत रहैत अछि ओ
कखनो अपन बैलेंस शीट मे
कखनो अपन आलमीराक लॉकर मे
आ कखनो अपन बैंकक पासबुक मे

मुदा नहि भ’ सकलै बजारकेँ कविता सँ प्रेम
आ नहिए भ’ सकतै कविताकेँ बजार सँ प्रेम
ताधरि
जाधरि मुनिया माँजैत रहत ऐंठार पर बासन
जाधरि किसुनमा पोछैत रहत लत्ता सँ टेबुल