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चौथी ज्योति - सरिता / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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सरिते! क्यों अविरल गति से
प्रतिपल बहती रहती हो?
क्षण-भर के लिए कहीं भी
विश्राम क्यों न करती हो?॥1॥

क्या कोई शुभ सन्देशा
लायी हो तुम हिम-गिरि से?
कहने जाती हो जिसको
अपने प्रेमी सागर से॥2॥

तुम सीधी कभी न चलती
रहती हो क्यों इठलाती?
है बात कौन-सी ऐसी
जिससे फूली न समाती॥3॥

उर उमड़ रहा क्यों ऐसा
ले-ले उत्ताल तरंगे?
क्यों आज हृदय मं उठतीं
हैं ऐसी उच्च उमंगे?॥4॥

हम खड़े तीर पर कब से
तुम तनिक नहीं रुकती हो।
कुछ बात पूछते हैं हम
तुम कल-कल हँस देती हो॥5॥

देखे हैं बहने वाले
पर तुम-सा कहीं न देखा।
होता प्रतीत सागर से
मिल गयी तुम्हारी रेखा॥6॥

बह तो तुम खूब रही हो
पर सोच-समझ कर बहना।
उतना आसान नहीं है
प्रेमी से मिलकर रहना॥7॥

फिर प्रेमी भी तो कैसा
सागर-सा वैभवशाली।
जिसमें अगणित मुक्ताओं
की निधियाँ भरी निराली॥8॥

करना है उसको अपना
तन-मन-धन सब कुछ अर्पण।
आदर्श प्रेम-जीवन का
है केवल आत्म-समर्पण॥9॥

तन-मन अर्पण कर दोगी
अपना अस्तित्व मिटा कर।
पर भेंट रूप में धन क्या
दोगी तुम उसको जाकर?॥10॥

तुम तो सँग में लायी हो
केवल टुकड़े पत्थर के।
क्या भेंट योग्य यह होगी
उस प्रेमी रत्नाकर के?॥11॥

अथवा उसको क्या धन की
है लेश-मात्र भी चिन्ता?
वह तो है ही रत्नाकर
उसको अभाव क्या रहता?॥12॥

अच्छा, जाओ, मत बोलो,
अब सब कुछ जान गयी मैं।
उर उमड़ा देख तुम्हारा
बस सब कुछ ताड़ गयी मैं॥13॥

जअ हृय उमड़ पड़ता है
मुख से कुछ बात न आती।
केवल दिल की धड़कन ही
सारे रहस्य बतलाती॥14॥

आदर्श तुम्हारा होगा
आली! यह आत्म-समर्पण।
कब होते देखा ऐसा
जीवन को जीवन अर्पण?॥15॥

यदि मिल जाओगी सागर
में निज अस्तित्व मिटाकर।
सागर क्षण भर में देगा
निज रूप तुम्हें अपना कर॥16॥

तब इस लघु सरिता से बन
जाओगी विस्तृत सागर।
सब जगत् कहेगा ‘सागर’
सब विश्व कहेगा ‘सागर॥17॥